Saturday, December 29, 2018

पतंग और डोर

मैं हूँ पतंग और तू डोर, पर मेरी नहीं हाँ कभी अपना कहता था तुझे जब तू बंधी थी मुझसेफिर जाने क्या मौसम बदला और तू छोड़ गयी मुझे दूर तनहा इस गगन में अकेले, जहाँ से मैं वापस सका और तू तो डोर थी बंध गयी किसी और के साथ। मगर तेरी भी मजबूरियाँ समझता हूँ मैं दोस्त, तू भी तो टूटी है मेरे साथ यादें बनकर, खोने से ज़्यादा टूटने का अहसाह दर्द दे जाता है यही सोचकर मैं खोया सा रहता हूँ कि किस हाल में होगी तू मुझसे टूटकर मैं तो खो गया हूँ ज़िंदगी के आसमानी तूफ़ान में और तू दुनिया की उलझनों में उलझी होगी कहीं  
जब यहीं हस्र करना था तुझे हमारा तो हे निर्माता अपने चंद पल के खेल के लिए हमें बनाया क्यूँ था, और बनाया तो इतना कमज़ोर क्यू बनाया कि तेरे खेल  में ही मिट गयी हमारी हस्ती। कब तक तू खेलता रहेगा इंसान रूपी पतंग-डोर से , कब तक नाचते रहेगे हम तेरे इशारों पर हे भगवान अब तो हमसे खेलना छोड़ दे या फिर से मुझ पतंग को मेरी डोर से जोड़ दे  

-एक व्यथित पतंग (चंद्र मोहन)

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